Homeभगवान हनुमान जी की कथाएँहनुमान का अवतरण (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

हनुमान का अवतरण (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

हनुमान का अवतरण (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

हजारों वर्ष पहले कांचगिरि (सुमेरु पर्वत) पर वानरराज केसरी निवास करते थे| उनकी पत्नी का नाम अंजना था, जो वानरराज कुंजर की पुत्री थीं| पति-पत्नी दोनों बहुत सुखी थे| लेकिन एक ही चिंता उन्हें परेशान किए रहती थी कि उनके यहां कोई संतान नहीं थी| विवाह हुए कई वर्ष बीत चुके थे| लेकिन अभी तक अंजना मां नहीं बन पाईं थीं| इसलिए वह उदास रहती थीं| इस मानसिक परेशानी से तंग आकर एक दिन दोनों महर्षि मतंग के पास पहुंचे और सादर दंडवत करके महर्षि को अपनी परेशानी बताई| सुनकर महर्षि मतंग ने अंजना को राय दी और बोले – “मैं तुम्हारी मनोस्थिति जानता हूं पुत्री! लेकिन मैं विवश हूं, क्योंकि मैं विधि के विधान में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता| हां, एक उपाय जरूर बता सकता हूं, जिससे तुम्हें संतान की प्राप्ति हो सकती है| तुम्हें कठिन तप करना होगा|”

अंजना बोलीं – “बताइए ऋषिवर! पुत्र प्राप्ति के लिए मैं कोई भी कठिन तप करने के लिए तैयार हूं|”

महर्षि बोले – “तुम वेंकटाचल पर्वत पर पहुंचकर भगवान वेंकटेशवर की आराधना करो| तत्पश्चात आकाशगंगा नामक तीर्थ में पहुंचकर स्नान करो| भगवान वेंकटेशवर प्रसन्न हुए तो अवश्य ही तुम्हें संतान प्राप्त होगी|”

अंजना वेंकटाचल पर्वत पर पहुंचीं और वायुदेव की उपासना में जुट गईं| उन्होंने वर्षों कठिन तप किया| उनके तप से प्रसन्न होकर एक दिन वायुदेव प्रकट हुए और बोले – “मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं देवी| जो इच्छा हो बताओ|”

अंजना बोलीं – “भगवन! मुझे पुत्र प्राप्ति का वर दीजिए| मैं एक पुत्र चाहती हूं, जो बिल्कुल आपकी ही तरह हो|”

वायुदेव बोले – “मैं समझ गया देवी! मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि मैं स्वयं ही तुम्हारे गर्भ से तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा|”

वायुदेव से वरदान पाकर अंजना मुदित मन से पति के पास लौंटी| अंजना को वापस पाकर वानरराज केसरी की खुशी का ठिकाना न रहा| उसके कुछ महीने बाद चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार की पवित्र वेला में अंजना के गर्भ से पवनपुत्र महावीर हनुमान ने जन्म लिया|

धरती पर हनुमान के चरण रखते ही माता अंजना और वानरराज केसरी के आनंद की सीमा ही नहीं थी| चारों दिशाओं में हर्षोल्लास की लहरें दौड़ पड़ीं| देवगण, ऋषिगण, कपिगण, पर्वत, प्रपात, सर, सरिता, समुद्र, पशु-पक्षी और जड़-चेतन ही नहीं, स्वयं माता वसुंधरा भी पुलकित हो उठीं| सर्वत्र हर्ष एवं उल्लास प्रसारित था| चारों दिशाओं में आनंद का साम्राज्य व्याप्त हो गया|

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