सत्य-निष्ठा

बचपन में गांधीजी को घर के लोग ‘मोनिया’ कहकर पुकारते थे| मोनिया बड़ा ही शरारती था| एक बार बच्चों ने मिलकर मंदिर के खेल के ठाकुरजी को झूला-झूलाने का तय किया| ऐसे खेलों में वे मिट्टी की मूर्ति बना लेते थे, लेकिन इस बार उन्होंने सोचा कि लक्ष्मी नारायण के मंदिर से कुछ असली मूर्तियां उठा लाएं| फिर क्या था! पांच-छ: बच्चों की टोली मंदिर की ओर चल दी| निश्चय हुआ कि और बालक तो इधर-उधर छिपे रहें और सबसे छोटा ‘चंदू’ सिंहासन पर से मूर्तियां उठा लाए|

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संयोग से पुजारी आराम कर रहा था| चंदू चुपचाप एक-एक करके मूर्तियां उठाकर कुर्ते के पल्लू में रखने लगा, लेकिन बालक तो बालक ही ठहरा! उतावली में मूर्तियां आपस में टकरा गईं| जैसे ही आवाज हुई कि पुजारी को पता चल गया|

चंदू ने यह देखा तो वहां से भागा| उसके साथी भी भागे| पुजारी ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की, लेकिन एक भी बालक उनके हाथ न पड़ा| अपनी जान छुड़ाने के लिए चंदू ने मूर्तियां आनंद बाबा के मंदिर के आंगन में फेंक दीं|

बेचारा पुजारी अब क्या करे! मूर्तियां उसे कैसे मिले? और कोई रास्ता न सूझा तो उसने चंदू के बाप के पास जाकर शिकायत की सारे बच्चे बुलाए गए| सबसे एक ही जवाब मिला – “हमें पता नहीं, हम तो मंदिर में खेल रहे थे| पुजारी यों ही हमारे पीछे पड़ गया है|”

अंत में मोनिया की बारी आई तो उसने निडर होकर यह कहा – “हम लोग मंदिर के खेल के लिए मूर्तियां लेने गए थे| चंदू ने उन्हें आनन्द बाबा के मंदिर में डाल दिया है|”

बच्चों को काटो तो खून नहीं! मोनिया भी जानता था कि उन सबकी अच्छी मरम्मत होगी, लेकिन झूठ बात उसके मुंह से न निकलनी थी, न निकली|

आगे क्या हुआ, पता नहीं, पर छोटे-बड़े सबने समझ लिया कि कुछ भी हो मोनिया झूठ नहीं बोल सकता|

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