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चलता-फिरता फरिश्ता

यह उन दिनों की बात है, जब चंपारन में किसानों का सत्याग्रह चल रहा था| गांधीजी की उस सेना में सभी प्रकार के सैनिक थे| जिसमें आत्मिक बल था, वे उस लड़ाई में शामिल हो सकते थे| सत्याग्रहियों में कुष्ठ रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था उसके शरीर में घाव थे| वह उन पर कपड़ा लपेटकर चलता था| एक दिन शाम को सत्याग्रही अपनी छावनी को लौट रहे थे, पर उस बेचारे कुष्ठी से चला नहीं जा रहा था| उसके पैरों पर बंधे कपड़े कहीं गिर गए थे | घावों से खून बह रहा था| सब लोग आश्रम में पहुंच गए| बस एक वही व्यक्ति रह गया|

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प्रार्थना का समय हुआ तो गांधीजी ने निगाह उठाकर अपने चारों ओर बैठे सत्याग्रहियों को देखा, पर उन्हें वह महारोगी नहीं दिखाई दिया| उन्होंने पूछताछ की तो पता चला कि लौटते समय वह पिछड़ गया था| यह सुनकर गांधीजी उसी समय उठ खड़े हुए और हाथ में बत्ती लेकर उसकी तलाश में निकल पड़े| चलते-चलते उन्होंने देखा कि रास्ते में एक पेड़ के नीचे एक आदमी बैठा है| दूर से ही गांधीजी को पहचानकर वह चिल्लाया – “बापू!”

उसके पास जाकर गांधीजी ने बड़े प्यार से कहा – “अरे भाई, अगर तुमसे चला नहीं जा रहा था तो तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा?”

तभी उनका ध्यान उसके पैरों पर गया| वे खून से लथपथ थे| गांधीजी ने झट से अपनी चादर को फाड़कर उसके पैरों पर लपेट दिया और उसे सहारा देकर धीरे-धीरे आश्रम में ले आए, उसके पैर धोए और फिर प्यार से अपने पास बिठाकर उन्होंने प्रार्थना की|

अपने धर्म-ग्रंथों में हम फरिश्तों की कहानियां पढ़ते हैं, जो संकट में फंसे लोगों की सहायता के लिए दौड़े चले आते हैं|

इससे बढ़कर हमारा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि एक ऐसा ही चलता-फिरता फरिश्ता वर्षों तक हमारे बीच रहा|

भक्त और