चतुर कौआ

किसी वन में मदोत्कट नाम का सिंह निवास करता था| व्याघ्र, कौआ और सियार ये तीन उसके नौकर थे| एक दिन उन्होंने एक ऐसे ऊंट को देखा जो अपने निरोह से भटककर उनकी ओर आ गया था| उसको देखकर सिंह कहने लगा, ‘अरे वाह, वह तो विचित्र जीव है| जाकर पता तो लगाओ कि वह वन्य प्राणी है अथवा की ग्राम्य प्राणी|’

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यह सुनकर कौआ बोला, ‘स्वामी! यह ऊंट नाम का ग्राम्य जीव है और आपका भक्ष्य है| आप इसको मारकर खा जाईए|

सिंह बोला, ‘मैं गृहागत अतिथि को नहीं मारता कहा गया है कि विश्वस्त और निर्भय होकर अपने घर आए शत्रु को भी नहीं मारना चाहिए| अत: उसको अभय देकर यहां आने का कारण पूछ सकूं|

सिंह की आज्ञा पाकर उसके अनु ऊंट के पास गए और उसको आदर के साथ सिंह के पास ले आए| ऊंट ने सिंह को प्रणाम किया और बैठ गया| सिंह ने जब उसके वन में विचरने का कारण पूछा तो उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह सार्थवाह से बिछुड़कर भटक गया है| सिंह ने जब यह सुना तो कहने लगा, ‘कथानक! अब पुन: ग्राम में जाकर भार ढोने जैसे कष्टकारक कार्य को मत करो| इसी वन में हमारे साथ रहते हुए इस सुन्दर हरी-हरी घास को चरो और आनन्द लो|’

इस प्रकार उस दिन से वह कथनक् नाम का ऊंट उनके साथ ही रहने लगा| उसके कुछ दिन बाद मदोत्कट सिंह का किसी वनचरी हाथी के साथ घमासान युद्ध हुआ| उस हाथी के मसूल के समान दाँतों के प्रहार से सिंह अधमरा तो हो गया किन्तु किसी प्रकार जीवित रहा, तदपि वह चलने-फिरने में अशक्त हो गया था| उसके अशक्त हो जाने से काक आदि उअके अनुचर भूखे रहने लगे| क्योंकि सिंह जब शिकार करता था तो उसके अनुचरों को उसमें से भोजन मिला करता था| अब सिंह शिकार करने में असमर्थ था| उनकी दुर्दशा देखकर सिंह बोला, ‘किसी ऐसे जीव की खोज करो कि सिजको मैं इस अवस्था में भी मारकर तुम लोगों के भोजन की व्यवस्था कर सकूं|

सिंह की आज्ञा पाकर वे चारों प्राणी चारों ओर शिकार की तलाश में घूमने निकले| जब कहीं कुछ न मिला तो कौए और सियार ने परस्पर मिलकर मंत्रणा की| श्रृंगाल बोला, ‘मित्र वापस इधर-उधर भटकने से क्या लाभ? क्यों न आज इस कथनक को मारकर उसका ही भोजन किया जाए?

बात तो ठीक है| किन्तु स्वामी ने तो उसको अभयदान दिया हुआ है, फिर उसको कौन मार सकता है?

‘मैं स्वामी को समझकर उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लूंगा कि वे ऊंट को मारें| मैं अभी जाकर उनसे बात करता हूं|’

सियार सिंह के पास गया और वहां पहुंचकर कहने लगा, ‘स्वामी हम सबने मिलकर सारा वन छान मारा है किन्तु कहीं कोई ऐसा पशु नहीं मिला कि जिसको हम आपके समीप मारने के लिए ला पाते| अब भूख इतनी सता रही है कि हमारे लिए एक पग चलना मुश्किल हो गया है| आप भी पथ्य पर निर्भर कर रहे हैं| यदि आपकी आज्ञा हो तो आज कथनक के मांस से ही आपके पथ्य का प्रबन्ध किया जाए

श्रृंगाल की बात सुनकर सिंह को क्रोध आ गया वह बोला, ‘धिक्कार है तुम्हें!’ फिर यदि इस प्रकार की बात कही तो तत्क्षण तुमको मार डालूंगा| मैंने उसको अभयदान दिया है और मैं ही उसे मारूं| कहा भी है गोदान, भूमिदान अथ्वा अन्नदान उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि अभयदान होता है|

सियार बोला, स्वामी! यदि अभयदान देकर आप उसका वध करेंगे तभी तो आपको पाप लगेगा, किन्तु यदि आपके प्रति अपनी मुक्ति के कारण वह स्वयं अपना जीवन आपके प्रति अर्पित कर देता है तब तो उक्त दोष नहीं लगेगा| यदि वह प्रस्तुत नहीं हुआ तो हममें से किसी को मारकर पथ्य कीजिएगा| यदि आपको पथ्य नहीं मिला तो इसका परिणाम भयंकर हो सकता है| हमारे इस जीवन से क्या लाभ जो स्वामी का किसी प्रकार अनिष्ट हो गया तब भी तो हमको अग्निप्रवेश करना ही होगा|

यह सुनकर मदोत्कट कहने लगा, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो|’

राजा को आज्ञा पाते ही श्रृंगाल ने तत्काल अपने साथियों के पास जाकर कहा, मित्र! स्वामी की अवस्था चिन्तनीय है| ऐसी स्थिति में व्यर्थ के भ्रमण करने से क्या लाभ| स्वामी के न रहने पर हमारी रक्षा कौन करेगा| स्वामी भूख के कारण प्राण त्यागने की स्थिति में है| ऐसी दशा में हम लोगों को चाहिए कि हम अपने प्राण उनके सम्मुख नौच्छावर करें|

यह सुनकर सभी अपने स्वामी के समीप लौट आए| उनको देखकर सिंह ने पूछा, ‘तुम लोगों को कुछ मिला’?

कौवा बोला, ‘नहीं स्वामिन! सम्पूर्ण वन छान मार किन्तु कहीं कुछ नहीं मिला| अब तो यही उचित है कि आप आज मुझ्र मारकर अपना पथ्य कीजिए| इससे आपके प्राणों की रक्षा के साथ-२ मेरी भी सद्गति हो जाएगी|

यह सुनकर श्रंगाल बोला, मित्र! आप तो बहुत ही छोटे हैं| आपके मांस से स्वामी की भूख नहीं मिटेगी| किन्तु जीव वध का पाप अवश्य लग जाएगा| अपने स्वामिभक्ति का परिचय दे दिया है| आपने अपना ऋण चुका दिया है| इससे आपकी दोनों लोकों में प्रशंसा हो गई है| अब आप आगे से हट जाईए, जिससे कि मैं स्वामी को अपना निवेदन प्रस्तुत कर सकूं|

यह सुनकर कौआ आगे से हट गया| तब श्रृंगाल आगे बढ़ा और अपने स्वामी को प्रणाम करके कहने लगा, ‘स्वामी! आज मुझे ही पथ्य रूप में स्वीकार कर मुझे धन्य कीजिए| सेवक का शरीर तो स्वामी के ही आधीन होता है| यदि आवश्यकता पड़ने पर स्वामी उसको ले भी ले तो वह पाप का भागी नहीं बनता|’

श्रृंगाल की बात सुनकर व्याघ्र ने कहा, ‘मित्र! आपने ठीक ही कहा है किन्तु आप भी तो अल्पकाय ही हैं| नखायध जीवी होने के कारण आप स्वामी के लिए अभक्ष्य भी हैं| प्राणन्त काल में भी अभक्ष्य का भक्षण कभी नहीं करना चाहिए| ऐसा शास्त्रों का वचन है| आपने अपनी कुलीनता का परिचय दे दिया है अत: अब आप भी आगे से हट जाईए| जिससे कि मैं स्वामी को आत्मनिवेदन कर सकूं|

इस प्रकार श्रंगाल भी सिंह के आगे से हट गया| तब व्याघ्र ने आगे बढ़कर सिंह को प्रणाम किया और फिर बोला ‘स्वामी! आज तो आप मेरे ही शरीर से अपना पथ्य कीजिए| इससे मुझे स्वर्ग में अक्षयवास मिलेगा और पृथ्वी पर मेरा यश कीर्तन होगा|

अन्य सब लोगों की बातें सुनकर कथनक ऊंट सोचने लगा कि इन सब लोगों ने मीठी-मीठी बातें कहकर स्वामी की दृष्टि में अपना स्थान बना लिया है स्वामी ने इनमें से किसी को भी नहीं मारा| अत: मेरे लिए यही उचित है कि मैं भी अपना निवेदन कर दूं| मेरी बात सुनकर स्वामी के साथ-साथ ये तीनों भी मेरी प्रशंसा करेंगे| अपने मन में यह निश्चय करके उसने कहा, ‘महाशय! आपने ठीक कहा है| किन्तु आप भी तो नखायुद्ध जीवी हैं| आपके मांस को स्वामी किस प्रकार खा सकते हैं जो व्यक्ति मन से भी अपनी जाति हैं| अत: आप आगे से हट जाइए और मुझे आत्मनिवेदन करने का अवसर दीजिए|’

व्याघ्र तो इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था| वह तुरन्त हट गया और तब ऊंट आगे आया| उसने सिंह को प्रणाम करके कहा’ ‘स्वामी! ये सभी आपके लिए अभक्ष्य हैं अत: आज तो आप मेरे ही शरीर से अपनी जीविका चलाइए| जिससे की मुझे दोनों लोकों की प्राप्ति हो सके|’

कथनक का इतना कहना था कि व्याघ्र और सियार उसपर झपट पड़े और देखते ही देखते उसके पेट को चीरकर रख दिया| बस फिर क्या था, भूख से पीड़ित सिंह और व्याघ्र आदि ने तुरन्त ही उसको चट कर डाला|

यह कथा सुनकर संजीवक कहने लगा, ‘मित्र! इसी प्रकार आपका यह राजा भी क्षुद्र प्राणियों से आवृत्त है| वह भद्र पुरुषों द्वारा सेवनीय नहीं है| मैं इस बात को भली भांति जान गया हूं| ऐसा प्रतीत होता है कि किसी दुष्ट सभासद के कान भरने के कारण वह मुझसे रुष्ट हुआ है| ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, कृपया आप ही बताईए|’

दमनक बोला, ‘ऐसे स्वामी की सेवा करने से तो विदेश गमन ही अच्छा है|’

संजीवक बोला, ‘जबकि मेरा स्वामी मुझसे रुष्ट हो तो ऐसी स्थिति में मुझे बाहर नहीं जाना चाहिए| मुझे तो अब युद्ध के अतिरिक्त कोई श्रेयस्कर मार्ग सूझ ही नहीं रहा है|

यह सुनकर दमनक विचार करने लगा कि यह दुष्ट तो युद्ध करने के लिए प्रवृत है| यदि इसने अपने तीव्र सींगों से स्वामी पर प्रहार किया तो फिर तो अनर्थ ही हो जाएगा| कुछ सोचकर उसने संजीवक से कहा, ‘मित्र! आप कहते तो ठीक ही हैं| परन्तु स्वामी और भृत्य के मध्य संग्राम उचित नहीं है| क्योंकि शत्रु की शक्ति को बिना जाने ही जो बैर बढ़ाता है वह शत्रु के सम्मुख उसी प्रकार अपमानित और पराजित होता है जिस प्रकार टिट्टभ के सम्मुख समुद्र को होना पड़ा था|

जब साधु